संडे वाली चिट्ठी 3- डियर पापाजी

Dear पापा जी,

कुछ दिन पहले आपकी चिट्ठी मिली थी। आपकी चिट्ठी मैं केवल एक बार पढ़ पाया। एक बार के बाद कई बार मन किया कि पढ़ूँ लेकिन हिम्मत नहीं हुई। मैंने आपकी चिट्ठी अटैची में अखबार के नीचे दबाकर रख दी है। अटैची में ताला लगा दिया है। मैं नहीं चाहता मेरे अलावा कभी कोई और आपकी चिट्ठी पढ़े।

आपने जैसे कई बातें उस दिन पहली बार चिट्ठी में मुझे बतायीं ऐसी ही एक बात मैं आपको बताना चाहता हूँ। छोटे पर जब मैं रोज़ बस से स्कूल जाता था तो रोना नहीं आता था लेकिन जिस बस छूट जाती और आप स्कूल छोड़ने आते थे उस दिन रोना आ जाता था। क्यूँ आता था इसका कोई जवाब नहीं है। न मुझे तब समझ आया था न अब समझ में आ रहा है जब मैं ये चिट्ठी लिख रहा हूँ।

हम लोगों को मम्मी लोगों ने ये क्यूँ सिखाया है कि लड़के रोते नहीं हैं। रोते हुए लड़के कितने गंदे लगते हैं। क्यूँ, बाप बेटे कभी एक दूसरे को ये बताना ही नहीं चाहते कि उन्हे एक दूसरे के लिए रोना भी आता है। मैं इस चिट्ठी से बस एक चीज बताना चाहता हूँ कि जब मैं घर से हॉस्टल के लिए चला था। तब मैं जितना घर, मोहल्ला, खेल के मैदान, शहर, मम्मी के लिए रोया था उतना ही आपके लिए भी रोया था। मुझे याद आती है आपकी। ठीक 10 बजे जो रात में आप फोन करते हैं किसी दिन फोन में आधे घंटे की देरी होती है तो मुझे चिंता होती है। फोन पे भी बस इतनी सी ही बात कि हाँ ‘यहाँ सब ठीक है’। ‘तुम ठीक हो’ कुल इतनी सी बातचीत से लगता है कि दुनिया में सब ठीक है और मैं आराम से सो सकता हूँ।

मम्मी ने घर से आते हुए रोज़ नहाकर हनुमान चलीसा पढ़ने के कसम दी थी, शुरू में बुरा लगता था लेकिन अब आदत हो गयी है। हालाँकि अब भी मैं मन्दिर वंदिर नहीं जाता हूँ। आपको पता है जब मैं छुट्टी पर घर आता हूँ तो उतने दिन हनुमान चालीसा नहीं पढ़ता। लगता है कि आपके घर पे रहते हुए हनुमान चालीसा पढ़ने की क्या जरूरत आप तो हो ही।

इस बार घर आऊँगा को सही से गले लगाऊँगा आपको। आज तक हम सही से गले भी नहीं मिले। गले लगते हुए मुझे अगर रोना आ जाए तो चुप मत कराइएगा। बस थोड़ी देर चैन से रो लेने दीजिएगा। बहुत साल के आँसू हैं बहुत देर तक निकलें शायद।

आपकी चिट्ठी का इंतज़ार रहेगा।

~ दिव्य

जनवरी 2016 की दस तारीख़

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