संडे वाली चिट्ठी 12 – पागल !

सुनो यार पागल आदमी,

तुमसे ही बात कर रहा हूँ, तुम जो सड़क के किनारे फटे कपड़े, बढ़ी हुई दाढ़ी, उलझे बालों के साथ हर मौसम में पड़े रहते हो। ज़ाहिर है तुम ऐसे पैदा तो नहीं हुए होगे। मुझे मालूम है ये चिट्ठी तुम तक कभी नहीं पहुँचेगी । इसीलिये वो सारी चिट्ठियाँ लिखना सबसे ज़रूरी होता है जो कभी अपने सही पते पर नहीं पहुँचती।

रोज़ ऑफ़िस से जब लौट रहा होता हूँ तो तुम पर ऐसे हो नज़र जाती है जैसे दाँत टूटने के बाद की ख़ाली जगह में जीभ जाती है। जिस दिन नहीं दिखते तो चिन्ता होती है कि कहीं मर तो नहीं गए।

जब मैं लोगों को सुईसाइड करते हुए देखता हूँ तो लगता है साला तुमसे जीना सीखना चाहिये, घिसट घिसट के ही सही।
मैं समझ नहीं पाता तुम खाते क्या हो। तुम्हें रिश्तेदार कौन हैं । बरसात में तुम्हारे पास बरसाती कहाँ से आ जाती है । तुम्हें भूख लगती है तो क्या महसूस होता है। तुम्हें ग़ुस्सा आता है तो क्या सोचते हो।

कई बार तुम ज़ोर ज़ोर से माँ बहन की गाली देखते हुए देखता हूँ तो लगता है कि माँ और बहन के रिश्तों की जड़ हमारे कितने अन्दर तक हैं कि अपने नाम पते का ठिकाना न होने के बाद भी आदमी के अन्दर माँ बहन की गाली बच जाती है।

मुझे कभी कभी बहुत जलन होती है तुमसे, मैं भी इस दुनिया से बेचैन होकर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर गाली देना चाहता हूँ लेकिन थोड़ा बहुत पढ़ लिख गया हूँ न तो दुनिया की सही ग़लत की लाइन से डरता हूँ।

यार एक दिन के लिए तुम मेरी ज़िन्दगी ले लो। मैं एक दिन के लिए तुम्हारे जैसे पागल हो जाना चाहता हूँ ताकि मैं इस दुनिया को भूलने के लिए कहीं पहाड़ या समंदर न जाऊँ । यहीं बीच शहर में सबसे ज़्यादा भीड़ भाड़ वाली रोड पर अपनी नयी दुनिया बना लूँ और इस दुनिया पर जी भर थूकूँ । लोग मुझे पगला बोलकर पत्थर मार मार कर अधमरा छोड़ दें। तब जाकर शायद मुझे शान्ति मिले।

रोज़ थोड़ा थोड़ा पागल होते चले जाना अब मुझसे झेला नहीं जा रहा।

~ दिव्य प्रकाश दुबे

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