मनीष के साथ बात चीत
मनीष – पिछले तीन वर्षों में, हिंदी साहित्य के पाठकों की संख्या में शानदार इज़ाफ़ा देखने को मिला है. इन पाठकों में अधिकांश वह युवा हैं जो बीटेक, एमबीए, मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे होते हैं या किसी एमएनसी में नौकरी कर रहे होते हैं. इस दौर में युवा पीढ़ी को हिंदी साहित्य से जोड़ने का सबसे बड़ा श्रेय अगर किसी एक शख्स को दिया जाना चाहिए तो वह शख्स दिव्य प्रकाश दुबे होंगे. बीटेक और एमबीए की शिक्षा प्राप्त करने वाले दिव्य प्रकाश उन गिने चुने लेखकों में हैं, जिनकी किताबों को पढ़कर पूरी एक पीढ़ी हिंदी साहित्य और लेखन से जुड़ रही है. वह युवा जो हिंदी साहित्य को क्लिष्ट जानकर उससे विमुख हो गये थे, वे दिव्य प्रकाश दुबे के ज़रिये फिर हिंदी साहित्य की धारा में लौट आए हैं. मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मैं और दिव्य प्रकाश दुबे एक ही बीटेक कॉलेज से हैं. मैं आज जो कुछ भी लिख – पढ़ रहा हूँ उसकी शुरुआत दिव्य प्रकाश दुबे के मार्गदर्शन में शुरू हुई थी. मैं अक्सर हिंदी साहित्य में रूचि रखने वाले लोगों से कहता हूँ कि “आज के लेखक, दिव्य प्रकाश दुबे की तरह पोस्टर बॉय तो बनना चाहते हैं मगर उनके जितनी मेहनत करने से जी चुराते हैं”. पिछले दिनों उनकी चौथी किताब “अक्टूबर जंक्शन” पाठकों के बीच खासी लोकप्रिय रही. इसी सिलसिले में मैंने दिव्य सर से लम्बी और शानदार बातचीत की. आज मैं अपनी इसी बातचीत से जुड़े अंश आप सभी के साथ साझा करने जा रहा हूँ. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हर वो युवा जो लेखक बनना चाहता है और लेखन से जीविका चलाना चाहता है, उसके सामने सिलसिलेवार तरीक़े से कई बातें आएं, जिससे उसका मनोबल बढ़े और वह यूं ही अपनी भाषा और उसके साहित्य से प्रेम करता रहे.
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मनीष – अपने जीवन के शुरुआती सफ़र के बारे में बताइये ?
मेरा जन्म बनारस में हुआ. परिवार की जड़े उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर से जुड़ी हुई हैं. पिताजी सरकारी नौकरी में थे और उनके नियमित समय पर तबादले होते रहते थे. इसके चलते हम सभी शहर दर शहर उत्तर प्रदेश के अलग अलग हिस्सों में अपना जीवन गुज़ारते रहे. मेरी पढ़ाई एक सरकारी स्कूल में शुरू हुई. पिताजी के ट्रांसफ़र का यह आलम था कि मैंने पूरी स्कूली पढ़ाई के दौरान कुल ग्यारह स्कूल बदले. बचपन से ही मुझे पाठ्यक्रम में शामिल हिंदी किताबों की कहानियां बहुत आकर्षित करती थीं. मैं किताब खरीदते ही फटाफट सारी कहानियाँ पढ़ लेता. कॉलोनी में जो मुझसे बड़ी उम्र के बच्चे रहते, मैं उनकी हिंदी पाठ्य पुस्तकों में शामिल कहानियाँ भी पढ़ लेता. इस तरह से कहानियों से मेरा रिश्ता जुड़ गया था. बाक़ी उस दौर के भारत के सामान्य बच्चों की तरह ही मेरा बचपन था, मेरे शौक़, मेरे खेल थे.
मनीष – बचपन की कोई विशेष घटना जो आपके दिल के बेहद क़रीब हो और आप हमसे साझा करना चाहें ?
एक बहुत ही दिलचस्प वाक़िया है. बात सन 1992 की है. तब मैं उत्तर प्रदेश के हरदोई में रहता था. पूरे देश में राम मन्दिर निर्माण का मुद्दा अपनी आक्रमकता के चरम पर था. बड़ी तादाद में कारसेवक अयोध्या पहुँच रहे थे. स्थानीय प्रशासन को आशंका थी कि ये संगठित भीड़ उग्र होकर कुछ ऐसा कर सकती है, जिसके परिणाम सुखद नहीं होगे. इसी के मद्देनज़र हम सभी के स्कूलों में अनिश्चितकालीन अवकाश घोषित किया जा चुका था. सरकारी स्कूल एक तरह से जेल की तरह इस्तेमाल किए जा रहे थे. जैसे जैसे कारसेवक अयोध्या की तरफ़ बढ़ते, उन्हें रास्ते में रोककर स्कूलों की अस्थाई जेल में रोक लिया जाता. हम क्योंकि बच्चे थे इसलिए छुट्टियों से ख़ुश थे. इधर इस सबके चलते माहौल बहुत गर्म था. हालाँकि मुझे और मेरे परिवार को किसी तरह का खतरा नहीं था. हम ऑफिसर्स कॉलोनी में रहते थे जहाँ सुरक्षा के सभी पुख्ता इंतज़ाम थे.
खैर दिन बीते और एक रोज़ मालूम चला कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी है. टीवी, रेडियो, अख़बार हर जगह यही चर्चा थी. देश में हिंसा और दंगों की ख़बरें थी. फिर कुछ महीनों के बाद जब स्कूल खुले तो सभी बच्चे, शिक्षक आदि एक अजीब सी चुप्पी लिए हुए थे. क्लास में बच्चे आपस में यह चर्चा करते कि “मस्जिद गिरा दी है और अब मन्दिर बनाया जाएगा”. ऐसे ही एक रोज़ घर में सवेरे अख़बार आया जिसमें मुख्य पन्ने पर यह ख़बर छपी थी कि चन्द्रशेखर ने प्रधानमन्त्री बनने के बाद यह भरोसा दिलाया है कि वह मन्दिर निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करेंगे. यह पढ़कर मैंने यूं ही घर में सवाल पूछ लिया कि “क्या अब मन्दिर बन जाएगा ?” इतना सुनते ही घरवालों ने मुझे डांटना शुरू कर दिया. उनका कहना था कि मैं जिस उम्र में हूँ उस वक़्त मुझे अपने खेलने, खाने और पढ़ाई से सरोकार होना चाहिए. मन्दिर बनेगा या नहीं यह मेरी सोच और प्राथमिकता का हिस्सा कैसे बन गया. यह मुझे बहुत प्रभावित कर गया. आज मुझे इसकी गंभीरता समझ आ रही है. आज सोशल मीडिया आदि से जिस तरह धर्म, जाति का ज़हर बच्चों और युवाओं में घोला जा रहा है उसका भयानक असर हम सब देख रहे हैं. मेरे ताऊजी संघ से जुड़े थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह कई बार हमारे घर आते थे. मगर इस सबके बावजूद मेरे मन में किसी धर्म,जाति, पंथ के प्रति कोई भी पूर्वाग्रह पैदा होने नहीं दिया गया. यह बहुत शानदार चीज़ है जो आज हर माता पिता, शिक्षक को देखनी चाहिए.
मनीष – हमें बताइए कि आप लेखन से किस तरह जुड़े ?
जैसा कि मैंने बताया कि बचपन में मुझे पाठ्यक्रम में शामिल हिंदी किताबों की कहानियाँ पढ़ने का शौक़ चढ़ चुका था. बारहवीं के बाद मैंने दो साल इंजीनियरिंग की तैयारी की. इस दौरान मैंने ओशो रजनीश को ख़ूब पढ़ना शुरू किया. इतना पढ़ा कि लगा कि दुनिया बेकार की चीज़ है और अब मुझे ओशो के पुणे वाले आश्रम में जाकर संन्यासी बनना चाहिए. मगर फिर मन बदला और मैं ओशो आश्रम न जाकर बीटेक करने रूड़की के एक प्राइवेट कॉलेज चला गया.
वहां पहले तीन साल में प्यार, इश्क़, मुहब्बत हो चुकी थी. साथ ही उस इश्क़ के असर से फूल, चाँद, सितारे टाइप वाली कविताएँ लिखनी शुरू कर दी थीं. बीटेक करने के बाद फिर से एक खालीपन था. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि जीवन में क्या किया जाए. उस वक़्त एक भैया थे जो एडवरटाइजिंग फ़ील्ड में काम करते थे, उन्होंने मुझे बुलाया और एक स्कूल के लिए गीत, कविता टाइप कुछ लिखने के लिए कहा. मैंने जब गीत लिख के दिया तो उसके बदले भैया ने मुझे एक हज़ार रूपये दिए. उन एक हज़ार रुपयों को देते हुए भैया ने जो मुझसे कहा वो बहुत दिलचस्प था. भैया ने कहा “ इस गीत से मैं लाख रूपये कमाऊंगा मगर मैं तुमको ये हज़ार रुपया इसलिए दे रहा हूँ ताकि तुम ये महसूस कर सको कि लिखकर भी कमाया जा सकता है. ये एक तरह से पहला क़दम था लिखने की तरफ़.
इसके बाद मैंने एक ठीक – ठाक प्राइवेट कॉलेज से एमबीए की पढ़ाई पूरी की. फिर मेरी नौकरी एक टेलिकॉम कंपनी में लग गई. ज़िन्दगी में पद, पैसा मिल रहा था. इस दौरान मैंने पढ़ना जारी रखा. मैंने क्योंकि दो अलग अलग जगहों पर कॉलेज लाइफ, कई जगहों पर स्कूल लाइफ जी थी और अब ऑफिस लाइफ जी रहा था तो मेरे साथ ऐसे कई अनुभव थे जो कहानी के रूप में बाहर आना चाह रहे थे. नौकरी करते हुए, नौकरी के अंग्रेज़ी माहौल में मेरे अंदर का हिंदी मीडियम लेखक अपनी अभिव्यक्ति के रास्ते तलाशता. इसी कुलबुलाहट में दिन गुज़रते रहे. इसी बेचैनी से फिर कहानियाँ निकलीं और नियति के इच्छा अनुसार मेरा पहला कहानी संग्रह “ शर्ते लागू” हिन्द युग्म से प्रकाशित हुआ.
मनीष – आपने जब लिखना शुरू किया उस वक़्त हिंदी साहित्य जगत की स्थिति अच्छी नहीं थी. उस वक़्त एक बढ़िया नौकरी में होने के बावजूद आपने किताब लेखन में समय देने और फिर नौकरी के साथ साथ पूरे देश के लिटरेचर फेस्ट,बुक फेयर, बीटेक कॉलेज में जाकर किताबों का प्रचार करने की ज़हमत क्यों उठाई ?
मनीष, मैंने कभी भी जीवन ज़्यादा लॉजिकल होकर नहीं जिया है. मैंने जिस कॉलेज से एमबीए किया, जिस कंपनी में मैं नौकरी कर रहा था, जो मेरी जॉब प्रोफाइल थी, उसे देखते हुए कोई भी अंग्रेज़ी का प्रकाशक मुझे बेझिझक अच्छी रॉयलिटी में साइन करता. मगर मुझे कहानियां कहनी थी अपनी भाषा में. ऐसी कहानियां जो मेरे दिल के बहुत क़रीब रही हैं. जीवन में कुछ पल ऐसे आते हैं जिस समय हम मौजूद वक़्त के पार देख पाते हैं. उस समय मैं भी यह महसूस कर रहा था कि वक़्त ज़रूर बदलेगा. मुझे लग रहा था कि ऐसा वक़्त जल्द ही आएगा जब दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला बीस साल का लड़का हिंदी साहित्य की किताबें पढ़ेगा. मुझे विश्वास था कि हिंदी साहित्य फिर से चर्चा का विषय बनकर लोगों के जीवन, उनकी दिनचर्या का हिस्सा बनेगा.
बस हिंदी भाषा और कहानियों के प्रति इसी पैशन को लेकर मैं पूरी मेहनत के साथ लग गया. इसके अलावा मुझे अक्सर नौकरी के माहौल में मेरे अंदर का वो हिंदी मीडियम वाला लड़का चुप सा महसूस होता था. इसलिए भी मैंने हिंदी में कहानियाँ लिखनी शुरू की और फिर बहुत प्लानिंग के साथ किताबों के प्रचार प्रसार के काम को किया. आज भी और आने वाले वक़्त में भी, अगर मुझे हिन्दी किताबों के लिए मेहनत करनी पड़ती है, कुछ तकलीफें उठानी पड़ती हैं तो शौक़ से उठाऊंगा. मेरा जो हिन्दी भाषा, इसकी कहानियों से प्रेम है वह दर्द, संघर्ष के हर एहसास पर भारी पड़ता है.
मनीष – आज कई लेखक, पाठक और प्रकाशक वह जादू समझना चाहते हैं जिससे वह भी दिव्य प्रकाश दुबे की तरह पोस्टर बॉय बन सकें. क्या है वह जादू ?
देखो मनीष, मैं पहले दिन से अपने मन की कहानियां कहने के लिए चला था. मुझे वही कहानियां कहनी थी. चाहे कोई पढ़ता या नहीं पढ़ता, मैं वह कहानियां कहकर ही रहता. अब किताब बिकने लगी, लोगों को अच्छी लगी, बेस्ट सेलर बन गई, मैं पोस्टर बॉय बन गया तो यह सब काम का बाय प्रोडक्ट है. मेरा पहला लक्ष्य सिर्फ अपनी कहानियां कहना था न कि बेस्ट सेलर बन जाना.
अब बात जादू या प्रचार की. देखो, हम अगर कुछ अलग कर रहे हैं तो हमारा तरीक़ा भी अलग होना चाहिए. मैंने अपनी किसी भी किताब का कोई विमोचन समारोह नहीं करवाया. न ही कभी किसी बड़ी हस्ती से जी हुज़ूरी की अपनी किताब के विमोचन के लिए. मुझे ये सब चोचलेबाज़ी लगती है. मेरा मानना है अगर पाठक को आपका लिखा पसंद आएगा तभी कुछ होगा वरना सब मार्केटिंग फेल है. बात अगर अलग करने की करें तो मैंने नियमित प्रयास किए किताब के प्रचार के लिए. ऐसे प्रयास जो अलग, नए और आज के पाठक के लिए सहज थे. देश के कॉलेजों में जाना हो, लिटरेचर फेस्ट, बुक फेयर अटेंड करना हो, किताबों का सोशल मीडिया पर विभिन्न डिजिटल ऑडियो, वीडियो माध्यमों से प्रचार करना हो, यह सब किया गया किताब को पाठकों तक पहुँचाने के लिए. हिंदी किताबों का बुक ट्रेलर एक नई चीज़ थी. नई वाली हिंदी टैग लाइन एक आकर्षित करने वाली चीज़ थी. इस तरह लोगों तक और खास तौर पर युवाओं तक हिंदी की किताबें पहुँची और साहित्य का माहौल बना, जो काफ़ी समय से रुका हुआ था. फिर जब लोगों ने पढ़ा और उन्हें लेखन पसंद आया तब जाकर आज एक भरोसा, एक लोकप्रियता बनी है.
हमारे हिन्दी जगत में बहुत से लेखक अक्सर ये कहते हैं कि वह मार्केटिंग नहीं करना चाहते. यह सबसे बड़ा झूठ है. मैं पूछता हूं कि मार्केटिंग नहीं करना चाहते तो किताब को प्रकाशक के पास छपने क्यों भेजते हो. लिखो और छोड़ दो. आप क्योंकि लोकप्रिय होना, पैसा कमाना चाहते हैं, आप भी पाठकों का प्रेम चाहते हैं इसलिए आप प्रकाशक के पास जाते हैं. प्रकाशक के पास जाना ही किताब की मार्केटिंग का पहला क़दम है.
जब तक हिंदी जगत के आदर्शवादी लोग, मार्केटिंग को हीन समझने का झूठ नहीं छोड़ेंगे तब तक उनका पोस्टर बॉय बनने का, पाठकों तक पहुंचने का, लिखने से कमाने और आजीविका चलाने का सपना, सपना ही रह जाएगा.
मनीष – भारत में हिंदी साहित्य की किताबों के भविष्य को किस तरह से देखते हैं, युवाओं के लिए क्या क्या मौक़े हैं, कोई सलाह हो तो बताएं ?
मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि अगले पांच सालों में देश में ऐसे पांच से सात नए युवा लेखक होंगे जो हिंदी की किताबें लिखकर अपना जीवन जी रहे होंगे. जिनका पेट भरने का दम हिंदी की किताबों में होगा. आज ऑडियो बुक्स, ई बुक के आने से लेखकों के लिए कमाई का ज़रिया बढ़ा है. आपकी किताब पर वेब सीरीज, फ़िल्म आदि बनने से भी पैसा और लोकप्रियता बढ़ती है. इस सब बदलाव के बाद मैं हिंदी साहित्य और लेखकों के भविष्य को लेकर आशावादी हूँ.
बात युवा लेखकों की करूँ तो आज नए लोगों के लिए बहुत मौक़े हैं. समय बदल चुका है. पहले दूरदर्शन, सिनेमा, रेडियो आकाशवाणी था, आज टीवी, सिनेमा, अख़बार, वेब सीरीज, मीडिया चैनल, वेबसाइट, किताबें आदि ऐसे बहुत से माध्यम हैं जहाँ लेखक काम कर सकते हैं. युवा खुद को तराशें और फिर आवेदन करें. अगर उनमें हुनर, स्किल, क्राफ्ट है तो उन्हें काम ज़रूर मिलेगा. सलाह तो मैं ज़्यादा किसी को देता नहीं. बस ये है पढ़ो खूब, मस्त रहो, ज़िंदगी के पूरे अनुभव लो.
मनीष – ऐसी कोई कहानी का ज़िक्र कीजिए जिसने बचपन में बहुत प्रभावित किया हो ?
बचपन में यूं तो कई कहानियां पसंद आई मगर एक कहानी ने बहुत असर किया मुझ पर. मैंने छठी क्लास में कहानी पढ़ी “मंत्र” जिसमें एक सपेरा अपने बेटे की मौत के लिए ज़िम्मेदार डॉक्टर को माफ़ कर देता है और डॉक्टर के बेटे को अपनी मंत्र शक्ति के ज़रिये मृत्यु शैया से वापस लेकर आता है. यह बात मुझे बहुत अद्भुत लगी. देखो यार मनीष, हम सभी को एक इन्सान के तौर पर वही सपेरा होना है. हमें लोगों को माफ़ करना सीखना चाहिए. मन में बैर, कुंठा, क्रोध रखना अच्छा नहीं है. मन में गाठें नहीं प्रेम रहे तो जीवन की सार्थकता है.
मनीष – बातचीत के अंत में हमें बताइये कि मुंबई की भाग दौड़ वाली ज़िंदगी में एक छोटे शहर का हिंदी मीडियम वाला लेखक क्या कमी महसूस करता है ?
यार मनीष, मुझे मुंबई में जो सबसे बड़ी कमी महसूस होती है, वह “रोज़ रंग बदलते हुए आसमान को छत पर से न देख पाने की” स्थिति से पैदा होती है. मुझे एक ऐसे घर में रहने का मन होता है जहाँ से मैं रोज़ सबसे पहले सुबह सुबह आसमान देख पाऊं. इस घर, इस छत, इस आसमान के लिए मैं मुंबई से किसी दिन मोह भंग हो जाने के बाद, बनारस चले जाना चाहूँगा. बनारस से मेरा कोई कनेक्शन है. यही है, बाक़ी अभी मुंबई मेरी कर्म भूमि है. इस साल कुछ बढ़िया काम आने वाले वाले हैं पाठकों दर्शकों के सामने. बस उसी से ऊर्जा मिलती है और जीवन में सुकून, ख़ुशी का संचार होता है.