संडे वाली चिट्ठी 5- डियर अमिताभ !

पिछले हफ्ते पहली किताब( टर्म्स एंड कंडिशन्स अप्लाई) आए हुए तीन साल पूरे हुए। तीन साल पहले ये चिट्ठी सही में लिख कर अमिताभ बच्च्न को पोस्ट की थी। हाँ कभी जवाब नहीं आया बल्कि कूरियर वापिस आ गया था। कूरियर अभी भी के पड़ा हुआ है। कभी अमिताभ बच्चन से फुरसत में मुलाक़ात होगी तो वही बिन खुला कूरियर उनको दे दूँगा, उनके पास मेरे 100 रुपये उधार हैं।

डीयर अमिताभ जी ,

मुझे नहीं मालूम आप ये कभी पढ़ेंगे या नहीं ।

इंजीन्यरिंग करके निकले हुए ठीक एक साल होने जा रहा था, नौकरी लगी नहीं थी और इंजीन्यरिंग वाली नौकरी करने का मन भी नहीं था। 8-June-2006 सुबह तीन बजकर चालीस मिनट,स्थान– पुणे मैंने ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ पढ़कर खतम की और किताब में लाल और नीले रंग की कलम से सैकड़ों लाइंस को underline किया। उनमे से दो हिस्से यहाँ पर लिख रहा रहा हूँ ।

पेज़ नंबर-234 ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’

मैंने डॉक्टर बी.के.मुखर्जी के पास जाकर कहा ,”डॉक्टर साहब ,आपका इलाज बहुत महंगा है, मेरे पास आपके इलाज के लिए पैसे नहीं…” इसके पूर्व कि मैं कुछ और कहूँ या पूछूँ उन्होने अपने बदनाम मुँहफट स्वभाव से कहा, “पैसे नहीं हैं तो जाओ मरो!”

मुझे जीवन में चुनौती से ही बल मिलता है । यदि वे मुझे सौ बरस भी जीने का आशीर्वाद देते तो शायद जीने के लिए संघर्ष करने का मुझमें इतना बल न आता जितना मैंने उनके ‘जाओ मरो’ शब्दों से संचय किया ।

पता नहीं क्यूँ लेकिन लेकिन जब जब भी मैं कहीं से भी reject हुआ तो ये पंक्तियाँ मुझे याद आती रहीं। हिन्दी लिखने का थोड़ा और पढ़ने का बहुत शौक शुरू से ही था। “क्या भूलूँ क्या याद करूँ” एक मित्र को पढ़ने के लिए दी और जैसा कि किताबों के साथ अक्सर होता है लोग लौटना भूल जाते हैं। दोस्त ने बोला भी कि नयी किताब ले लो यार 225 रूपय की ही तो है । बात पैसे की नहीं थी। मैं पुणे के बाद लखनऊ आया और इसी किताब को वापस लेने कानपुर गया, दोस्त का पूरा घर ऊपर से नीचे करा दिया केवल इसलिए क्यूंकी इस किताब में मैंने कई जगह लाल, नीले पेन से निशान बना रखे थे वो निशान मेरे थे, उन underlines की कोई कीमत नहीं लग सकती थी। किताब वापिस मिल गयी और सबसे पहले मैंने किताब खोल कर यही पंक्तियाँ फिर से चार पाँच बार पढ़ीं ।

PN.198 “क्या भूलूँ क्या याद करूँ”

शायद सन’32 की जनवरी का पहला सप्ताह था, मैं प्रकाशक के यहाँ अपनी प्रतियाँ लेने गया। मुझे ढाई सौ प्रतियों का बण्डल दे दिया गया और उसे अपने कंधे पर रखकर मैं ऐसे ही गर्व से चला जैसे पक्षीराज गरुड़ ,भगवान विष्णु को अपनी पीठ पर बैठकर उड़े जा रहे हों –हाँ मैं उड़ा ही जा रहा था, मेरे पैर जैसे धरती पर नहीं पड़ रहे थे । मेरी सर्वप्रथम कृति प्रकाशित हो गयी थी ! पहली बार अनुभूति हुई कि कवि के पहली रचना प्रकाशन उसके लिए उतना ही रोमप्रहर्षक होता है जितना प्रेयसी का प्रथमालिंगन ।

रास्ते की एक घटना अविस्मरणीय है । कटरे में एक मेरे एक मित्र रहते थे श्याम गोपाल शिवली । उनके चाचा राम गोपाल शिवली सरकारी शिक्षा-सेवा में किसी पद पर थे। सामने से आते दिखे । पूछा , क्या लिए जा रहे हो बण्डल में ? इससे अधिक सुखद प्रश्न शायद ही जीवन में मुझसे किसी ने पूछा हो । मैंने विभोर होकर कहा “मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित हो गयी है !” छायावादी ‘नीरव स्वर’ की कोई सत्ता हो तो उसमें यह वाक्य उद्घोषित करता चल ही था था । मैंने बण्डल खोल उनको एक प्रति भेंट करनी चाही। उन्होने अपनी जेब से एक रुपया निकाला ,कहा “मैं तुम्हारी पहली किताब की पहली प्रति मुफ़्त नहीं लूँगा, ख़रीदूँगा। पहली ‘बोहनी’ दिन भर की बिक्री का भाग्य निर्णय करती है, तुम्हारी पुस्तकें लाखों में बिकें !” मेरी माँ कहती थी दिन भर में एक बार सरस्वती स्वयं मनुष्य की जिव्हा पर बैठकर बोलती हैं । उस समय राम गोपाल शिवली की जिव्हा पर सचमुच सरस्वती बोलीं थीं।

इस घटना के ठीक 81 साल बाद जनवरी 2013 में मेरी पहली किताब आने वाली है । किताब कहानियों की है । सारी कहानियाँ आज कल ही बोलचाल वाली हिन्दी में लिखी गईं हैं । मेरे बहुत से जानने वालों ने कहा यार हिन्दी कौन पढ़ता है । हिन्दी में क्यूँ लिखते हो लिखना है तो अँग्रेजी में लिखो । हिन्दी में लिखना ‘Cool’ भी नहीं हैं । मुझे नहीं मालूम मैं हिन्दी में ही क्यूँ लिखता हूँ । आये दिन पढ़ने को भी मिलता है कि आज कल की generation हिन्दी किताबें नहीं पढ़ती । बावजूद इसके मैंने एक हिन्दी की किताब लिख ली है ।

किताब का नाम है टर्म्स एंड कंडिशन्स अप्लाई (Terms and Conditions apply )

मैं भी आपको एक प्रति भेंट देना चाहता हूँ लेकिन मुझे बहुत अच्छा लगेगा अगर आप एक प्रति खरीद कर बोहनी कर दें ।

मुझे नहीं मालूम आप ये कभी पढ़ेंगे या नहीं । लेकिन अगर यहाँ तक पढ़िएगा तो बताइएगा जरूर।

सादर ,

दिव्य प्रकाश दुबे, लखनऊ

चिट्ठी में कुछ गलतियाँ हैं। उनको जान- बूझ के सही नहीं किया है। चिट्ठी जैसी गयी थी वैसी ही डाल दी। गलतियाँ सुधारनी जरूर चाहिए लेकिन मिटानी नहीं चाहिये। गलतियाँ वो पगडंडियाँ होती है जो बताती रहती हैं कि हमने शुरू कहाँ से किया था।

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