जब कभी ध्यान से अपने-आपको शीशे में देखता हूँ तो अब भी सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले उस लड़के का अक्स साफ नज़र आता है, जो खाकी पैंट और सफ़ेद शर्ट पहनकर शहर भर में साइकिल लहराते हुए स्कूल जाता था। वो लड़का मुहल्ले के इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाले कई लड़कों को अचरज से देखता, जब वे शाम को क्रिकेट खेलते हुए बताते थे कि उनके स्कूल में हिंदी में बोलने पर फ़ाइन लगता है।
ठीक-ठीक याद नहीं कि किस कॉमिक्स से पढ़ने की शुरुआत हुई लेकिन इतना तय है कि वो कोई चाचा चौधरी की ही कॉमिक्स रही होगी। गर्मी की छुट्टियों में किराये पर खूब सारी कॉमिक्स पढ़ डालता। कॉमिक्स वाले से पता नहीं कब ये डील हो गयी कि आधे दिन में कॉमिक्स वापिस कर दें तो पैसे आधे। फिर जिस दिन 4-5 कॉमिक्स से कम पढ़ो तो अजीब-सी बेचैनी रहती।
नयी क्लास में जाने पर किताब खरीदे जाने के पहले ही दिन हिंदी में कहानी (गद्य) वाली किताब ख़त्म हो गयी। इसके बाद मुहल्ले में किसी भइया या दीदी की क्लास 10th तक की हिंदी की कहानियों वाली किताब की सभी कहानियाँ छठवीं क्लास की छुट्टियों में ही ख़त्म हो गईं। ये सब अपने-आप होने लगा। पढ़ने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ी।
जो पहला नॉवेल पूरा ख़त्म किया वो था ‘लेडी चैटरली का प्रेमी’। वो भी छुपकर क्योंकि स्टेशन के स्टॉल पर लिखा सबसे ऊपर वही दिखता था और लोग उसको खरीदने के बाद दुकानदार को जिल्द चढ़ाने के लिए कहते। घर पर पापा हिंदी की कई किताबों के साथ हंस, जेम्स हेडली चेईज़, सुरेन्द्र मोहन पाठक और ‘ओशो’ रजनीश की कोई-न-कोई किताब लाते रहे और उधर मम्मी की मनोरमा, गृहशोभा और अखंड ज्योति आती रही। इन सभी किताबों को थोड़ा-बहुत अपने हिसाब से पढ़ने लगा। एक अच्छी चीज रही कि घर में हमेशा पढ़ने के लिए कुछ-न-कुछ नया होता।
इंजीनियरिंग कॉलेज जाने पर भी ये क्रम चलता रहा। हर महीने बाकी किताबों के अलावा ओशो टाइम्स, ओशो वर्ल्ड, इंडिया टुड़े, आउटलुक पलटता रहा। ये सिलसिला चल रहा था कि बनारस के एक सीनियर (शत्रुधन सिंह) ने‘मुझे चाँद चाहिए’ और ‘शेखर एक जीवनी’ पढ़ने के लिए दी। इधर घर पर ‘मृत्युंजय’ और ‘ययाति’ ये बताकर पढ़ने को दी गयी कि घर में कभी आग लग जाए तो कुछ बचाना, चाहे न बचाना लेकिन ये दोनों किताबें बचा लेना।‘मृत्युंजय’ 700 पन्नों की थी और 100 पन्ने रोज़ के हिसाब से 7 दिन में खत्म हुई। अब तक किताब पढ़ते हुए‘लाल-हरे’ रंग के पेन से अंडर-लाइन करने की आदत हो चुकी थी और एक ऐसी डायरी बन चुकी थी जिसमें वो सभी लाइनें हाथ से लिखी हुई होती थीं जो पसंद आई होतीं। ‘शेखर एक जीवनी’ की कुछ लाइनों ने बहुत दिन सही से सोने नहीं दिया।
-“स्कूलों में ‘टाइप’ बनते हैं, वह बना व्यक्ति।”
-“शांत बैठे रहना तपस्या नहीं है, शांत न बैठ सकने से ही तपस्या शुरू होती है।”
‘शेखर एक जीवनी’ उस सीनियर को कभी वापिस नहीं की। कभी कभी लगता है कि किताबों की अंडर-लाइंस भी अपने आप में एक अलग किताब होती हैं।
अगला टार्गेट था कि एक दिन में कम-से-कम 50 पन्ने पढ़े जाएँ और ये सिलसिला खूब चला भी लेकिन फिर हिंदी से बोर होने लगा तो अंग्रेज़ी की किताबों ने हाथ थाम लिया। जो भी मिला पढ़ता गया। किसी दिन 50 तो किसी दिन 50 से कुछ ज़्यादा पन्ने। तब तक कभी लिखने का मन नहीं किया।
कॉलेज में एक कल्चरल फेस्ट हुआ जिसमें ये तय हुआ कि 15 मिनट की एक स्किट भी होगी। तब पहली बार ज्ञान चतुर्वेदी के एक व्यंग्य ‘प्रगति पर उतारू भारत’ को अपने दोस्त (मुक्तेश मिश्रा) के साथ स्किट में कन्वर्ट कर दिया। कॉलेज में बहुत ही अच्छा रेस्पोंस मिला। हालाँकि कॉलेज में ये बात किसी को बताई नहीं कि ज्ञान चतुर्वेदी के व्यंग्य से आइडिया उड़ाकर स्किट को लिखा गया था। ये लिखने के बाद पहली बार लगा कि ‘यार और लिखा जाए’। फिर अगले दो साल में चार स्किट लिखीं। जब तीसरी स्किट लिख रहा रहा था तब तक पता चलना शुरू चुका था कि कौन से डॉयलॉग पर ताली बजेगी। लिखने में ‘मज़ा’ आना शुरू हो चुका था।
इंजीनियरिंग के बाद सॉफ्टवेयर की नौकरी करने का मन भी नहीं था और नौकरी लगी भी नहीं। उन्हीं दिनों एमबीए की तैयारी के दौरान घर के पास रहने वाले भइया, जिनकी एडवर्टाइजिंग एजेंसी थी, उनसे ऐसे ही टाइम पास लिखने के लिए काम माँगा। उन्होंने कहा कि एक स्कूल का एंथम सॉन्ग लिखना है। 2-3 दिन का टाइम है, लिख सकते हो क्या? उनको अगले एक घंटे में एंथम लिखकर दे दिया। भइया पढ़कर बड़ी देर तक सोचते रहे फिर अंदर जाकर अपना पर्स लेकर आए और 1000 रुपये देते हुए बोले-
“जो लिखे हो ये उसकी सही कीमत से बहुत कम है, लेकिन 1000 रुपये इसलिए रखो ताकि तुम्हें ये विश्वास आए कि तुम लिखकर कमा सकते हो।” वही हज़ार रुपये इंजीनियरिंग के बाद की ‘पहली’ कमाई थी। वो 100 रुपये के दस नोट मम्मी ने अलमारी में आज भी संभाल कर रखे हुए हैं। दीवाली में उसकी भी पूजा करती हैं मम्मी। इसके बाद बहुत से ऐड लिखे। एक-आध टीवी पर भी आए लेकिन फिर भइया से कभी पैसे नहीं लिये।
एमबीए करने Symbiosis (SIBM), पुणे पहुँचा। जहाँ पर उतनी ही हिंदी थी जितनी हवाई जहाज में जमीन से उड़ने के बाद होती है। एमबीए की अच्छी चीज़ ये रही की वहाँ समर्थ गर्ग से मुलाक़ात हुई जो कि पुणे में 2-3 साल सीरियस थियेटर कर चुका था। मुझे याद है जब किसी प्ले का पहला ड्राफ्ट लिखकर मैंने समर्थ को दिखाया तो उसने कहा-
“यार मज़ा नहीं आ रहा। दुबारा लिखो।”
पहली बार लिखा हुआ रिजेक्ट हुआ था। लेकिन यहाँ से पहली बार ये बात समझ में आना शुरू हुई कि जो लिख दिया वो पत्थर की लकीर नहीं होता। हाँ, वो पत्थर की लकीर तब होता है जब ‘बार-बार’ लिखा और ‘बार-बार, बार-बार’ मिटाया जाए। इसके बाद एमबीए के दौरान दो लंबे प्ले लिखे जिनमें से एक आईआईएम बंगलोर के थिएटर कॉम्पटिशन की हिंदी-केटेगरी में पहला रहा।
अपने लिखे पर कॉन्फिडेन्स आना शुरू हो गया था। आगे 4-5 शॉर्ट मूवीज लिखीं। कहानियाँ अभी भी नहीं लिखी थीं। हालाँकि कहानियों की किताबों से नाता लगातार बना रहा। हिंदी की जो किताबें मैं अब पढ़ता उनमें ये कमी महसूस होती कि इन किताबों में ऐसा कुछ भी नहीं होता था जिससे हिन्दुस्तान का कोई इंजीनियरिंग करने वाला लड़का जुड़ पाए। मेरे दोस्त कभी गलती से कोई किताब उठा भी लेते, जो मैं पढ़ रहा होता, तो वो 2 मिनट में ही‘बड़ी मुश्किल हिंदी है यार’ बोलकर नीचे रख देते। शायद उन कहानियों के कैरक्टर वो भाषा बोल रहे थे जैसा लिखी जाती है न कि जैसी बोली जाती है। इसके बाद ये फ़ैसला हो गया था कि अगर कभी मैं कहानियाँ लिखूँगा तो मेरे कैरक्टर लिखी हुई हिंदी में बात नहीं करेंगे बल्कि वो वैसे ही बोलेंगे जैसे वो ‘सही’ में हैं। लिखने वाली हिंदी और बोलने वाली हिंदी/हिंदुस्तानी में कोई फ़ासला नहीं होगा।
ये इसलिए भी था क्योंकि अगर मैं कभी लिखता तो मेरे पहले पाठक मेरे आस-पास वाले दोस्त ही होने वाले थे। इसीलिए मुझे लगता था कि जब मेरे आस-पास वाले हिंदी में पढ़ते नहीं है तो उनको अगर मुझे अपनी बात‘पढ़वानी’ है तो मुझे ऐसे लिखना पड़ेगा कि जब वो पढ़ें तो उनके ये न लगे कि वो पढ़ रहे हैं बल्कि ये लगे कि मैं उनको सुना रहा हूँ। वो इतना आसान हो कि वो तुरंत समझ जाएँ। उनको पढ़ते हुए ऐसा न लगे कि वो कोई भारी भरकम हिंदी की किताब पढ़ रहे हैं।
एक्सपेरीमेंट के तौर पर हर वीकेंड पर एक कहानी लिखता और हर सोमवार शाम को ऑफिस में जब कम लोग बचते तो अपने दोस्तों को वो कहानियाँ सुनाता। लोगों को मज़ा आता और मुझे कॉन्फिडेन्स। ये सिलसिला जब 7-8हफ्ते लगातार चला तब जिस वीकेंड कहानी नहीं लिख पाता तो बेचैनी रहती। ये ऑफिस वाले सब लोग वो थे जो आपस में बात हिंदी में करते, मीटिंग में इंग्लिश बोलते। दिन भर अपनी ईमेल इंग्लिश में लिखते। उनकी बोली में‘बहुत हिंदी’ होती और ‘थोड़ी इंग्लिश’। धीरे-धीरे वीकेंड वाली कुछ कहानियाँ जुड़कर किताब बन गयीं।
चूँकि मैं जिस माहौल में नौकरी करता हूँ और जिस तरह के कॉलेज से पढ़कर निकला हूँ वहाँ पर ‘शुद्ध हिंदी’ जैसा कुछ exist नहीं करता। जिनके साथ मैं दिन भर काम करता हूँ, जिन लोगों से दिन भर में मिलता हूँ, जो मेरे दोस्त हैं वो सभी किसी भी भाषा के कोई एक्सपर्ट नहीं हैं। फिर भी वो काम चला लेते हैं। यही मेरी कहानियों के साथ है। वो सारे कैरक्टर किसी भाषा के एक्सपर्ट नहीं हैं। मेरे पास आस-पास की जिंदगी की लाईब्रेरी से ‘कॉपी-पेस्ट’ किए हुए-से लोग हैं, बस। उनको ही सही से जानता हूँ मैं और उनमें कोई-न-कोई ऐसी बात अक्सर मिल जाती है जिसको सबसे बताने का मन करता है। कहानियाँ मेरे लिए ऐसे ही हैं जैसे किसी आस-पास वाले से बात करने का मन किया और बात हो गयी। बस।
किताब के बाद एक चीज सुनकर बड़ा अच्छा लगता है जब लोग बताते हैं कि मेरी किताब उनकी पहली हिंदीकिताब है। लेकिन इससे भी अच्छा तब लगता है जब वही लोग बोलते हैं-
“हिंदी इज कूल यार, हिंदी की कुछ और किताबें बताओ।”
ये सुनने के बाद, ये फिक्र बहुत मामूली मालूम होती है कि मेरी कहानियाँ इस दुनिया में बची रहेंगी या नहीं। बस मेरा काम इतना ही है कि अगर मैं हिंदी किताबों की दुनिया में हाथ पकड़कर उन लोगों का स्वागत कर पाऊँ जो हिंदी नहीं पढ़ते।