अगर केदारनाथ सिंह मेरे दादा जी होते…

मैं कभी अपने दादा जी को देख नहीं पाया इसलिए अक्सर ही एक उम्र पार कर चुके लोगों को देखकर मैं अपने दादा जी की इमेज बना लेता हूँ कि अगर मेरे दादा जी होते तो वो कितने कूल होते। क्या वो कभी मज़ाक में मेरे कॉलेज के पहले दिन मुझे जेब खर्च के साथ किसी लिफाफे में ये कविता लिखकर देते।

उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गरम और सुंदर होना चाहिए.

और मैं उनसे उनके स्कूल की या मोहल्ले की या शहर की कोई ऐसी बात पूछता जो मेरे पूरे परिवार, खानदान, जात, बिरादरी में किसी को नहीं पता। क्या वो अपने पोते के आगे अपना सब कुछ खोलकर रख देते। क्या वो बैठकर सिखाते कि प्यार होता कैसे है और हो भी जाए तो उसको ऐसे कैसे लिखते हैं कि वो पूरी दुनिया का हो जाए।

मैंने पहली बार केदारनाथ सिंह जी की कवितायें किसी ट्रेन के सफर में पढ़ीं थीं। ऐसा लगा था मैं ट्रेन में नहीं किसी उड़न खटोले में बैठा हूँ और मैं अभी उड़कर पूरा आसमान छान मारूँगा।

केदारनाथ सिंह जी को जब भी पढ़ा मुझे ये भरोसा हुआ कि हमें जादू में विश्वास होना चाहिए। ट्रेन कभी उड़न खटोला नहीं हो सकती लेकिन कविता ये बताती है कि किसी लड़की का हाथ पकड़ने जैसी अदना सी छोटी सी घटना में भी कोई लड़का ये सोच सकता है कि दुनिया को सुंदर होना चाहिए।

मैंने कई बार उनको अपने दादा जी जैसा सोचा है और बातें लिखीं हैं। एक दिन सुबह सैर पर जाते हुए उन्होंने मुझे बताया था कि जब मैं तुम्हारी उम्र का था तो जर्मन कवि रिल्के की इस बात को मैंने अपना मंत्र बना लिया था।

“एक कवि में इंतज़ार का माद्दा होना चाहिए”

मैं किसी शाम उनसे पूछता कि, “दादा जी कविता कैसे आती है?” तो वो एक कागज़ पर लिखकर धीरे से सरका देते कि

“नहीं याद आते तो महीनों तक नहीं आते,
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं”  

बस ऐसे ही आती है कविता, इससे ज़्यादा कभी फुर्सत से बताऊंगा।

मैं उनसे पूछता कि आप क्यों महीना भर के लिए दिल्ली छोड़कर गाँव चले जाते हैं। चकिया में एक छोटा सा मकान और पाँच बीघा खेत ही तो है। इस पर वो झिड़क कर बोलते, गाँव शक्ति बटोरने जाता हूँ”

जब वो गाँव से दिल्ली को झेलने की ताकत बटोर कर लौटते तो मैं उनके सोने से पहले किसी दिन उनसे मज़ाक-मज़ाक में पूछता, “क्या लगता है आपकी कविता से क्रांति आएगी ?”

बड़ी देर तक अपना चश्मा उतारकर रख देते और कहते, “जो लोग भी समझते हैं कि कविता से क्रांति आएगी वो कविता के मूलरूप को ही नहीं समझते। कविता क्रांति के लिए माहौल तैयार करती है बस”

आप मुझे इतनी पर्चियाँ लिख कर देते हैं कभी आपको पापा को कुछ लिखकर देना हुआ तो क्या लिखकर देंगे। इस पर उन्होने बिना एक मिनट गँवाये लिखा:

“और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे,
कि लिख चुकने के बाद,
इन शब्दों को पोंछकर साफ़ कर देना,
ताकि कल जब सूर्योदय हो
तो तुम्हारी पटिया,
रोज़ की तरह,
धुली हुई,
स्वच्छ चमकती रहे”

मैं अगर अपनी बातचीत लिखने बैठूँगा तो शायद कई किताबें लिखनी पड़ें। न मुझमें इतनी हिम्मत है और न ही मेरा अब इससे आगे लिखने का मन है। ये बताने की जरूरत भी नहीं है कि ये एक पन्ना लिखते हुए मुझे अपना मुँह कितनी बार धोना पड़ा।

मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं कि लिखना क्यों चाहिए। इसका जवाब मैं ऐसे ही टाल देता हूँ। मुझे लगता है लिखा हुआ और खास करके अच्छा हुआ लिखा छोड़कर जाना इस पूरी दुनिया के नाम वसीयत करके जाने जैसा है। जिसको पाकर कोई भी अमीर हो सकता है। एक-दो घर, कुछ ज़मीन से लेकर पूरा एक एम्पायर तक अपने बच्चे के लिए छोड़कर जाना एक अच्छी कविता के आगे कितना छोटा हो सकता है, ये केदारनाथ सिंह जी की हर एक कविता इस दुनिया में तब तक चीखती रहेगी जब तक की शब्द हैं।

मलाल ये नहीं है कि आप मेरे दादा जी नहीं थे। मलाल ये है कि मैं कभी आपकी उँगलियाँ छूकर नहीं देख पाया।  ये जो आखिरी नोट आपने कभी शायद अपने लिए किसी कविता की खाली जगह में लिख छोड़ा था।

कौन कह सकता था,
कि ऐसे भी आ सकती है मृत्यु,
जैसे आते हैं पक्षी।

 

अलविदा…

** ये आर्टिकल मूल रूप से सत्याग्रह पर पब्लिश हुआ था

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